#श्राद्ध का प्रचलन कब शुरु हुआ ? और सर्वप्रथम श्राद्ध किसने किया था ?
#श्राद्ध का प्रचलन कब शुरु हुआ ? और सर्वप्रथम श्राद्ध किसने किया था ?
श्राद्ध का प्रचलन कब शुरु हुआ ? और सर्वप्रथम श्राद्ध किसने किया था ? |
किन्तु अमावस्या को जब वह जागे तब भी उनका मन पुत्र शोक से बहुत
व्यथित था । उन्होंने अपना मन शोक से हटाया और पुत्र का श्राद्ध करने का विचार
किया । उनके पुत्र को जो-जो भोज्य पदार्थ प्रिय थे वे सभी तथा शास्त्रों में
वर्णित पदार्थों को लेकर उन्होंने भोजन तैयार किया ।
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महर्षि ने सात ब्राह्मणों को बुलाकर उनकी पूजा-प्रदक्षिणा करके
उन्हें कुश के आसन पर बिठाया । फिर उन सातों को एक ही साथ अलोना सावां परोसा ।
इसके बाद ब्राह्मणों के पैरों के नीचे आसनों पर कुश बिछा दिये और अपने सामने भी कुश बिछाकर पूरी सावधानी और पवित्रता से अपने पुत्र
का नाम और गोत्र का उच्चारण करके कुशों पर पिण्डदान किया ।
अब श्राद्ध करने के बाद महर्षि निमि
को और भी ज्यादा संताप हो रहा था कि वेद में पिता-पितामह आदि के श्राद्ध का
विधान है, किन्तु मैंने पुत्र के निमित्त
श्राद्ध किया है । मुनियों ने जो कार्य पहले कभी नहीं किया वह मैंने क्यों कर दिया
?
व्यथित होकर उन्होंने अपने वंश के प्रवर्तक महर्षि अत्रि का ध्यान
किया तो महर्षि अत्रि उनके ध्यान में आ पहुंचे । उन्होंने सान्त्वना देते हुए कहा— ‘डरो मत ! तुमने ब्रह्माजी द्वारा श्राद्ध विधि का जो उपदेश किया
गया है, उसी के अनुसार श्राद्ध
किया है ।’ ब्रह्माजी के उत्पन्न
किये हुए कुछ देवता ही पितरों के नाम से प्रसिद्ध हैं; उन्हें ‘उष्णप’ कहते हैं । श्राद्ध में उनकी पूजा करने से श्राद्धकर्ता
के पिता-पितामह आदि पितरों का नरक से उद्धार हो जाता है ।
सबसे पहले श्राद्ध कर्म करने वाले महर्षि निमि-
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इस प्रकार सबसे पहले महर्षि निमि
ने श्राद्ध का आरम्भ किया । उसके बाद सभी महर्षि उनकी देखादेखी शास्त्र विधि के
अनुसार पितृयज्ञ (श्राद्ध) करने लगे । ऋषि पिण्डदान करने के बाद तीर्थ के जल से
पितरों का तर्पण भी करते थे । धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में देवताओं
और पितरों को अन्न देने लगे ।और श्राद्ध का आम समाज में चलन शुरु हो गया।
श्राद्ध में पहले अग्नि का
भोग क्यों लगाया जाता है ?
लगातार श्राद्धों में भोजन करते-करते देवता और पितर जब पूरी तरह से
तृप्त हो गये और वह अन्न अब पच नही पा रहा था। तब वे उस अन्न को पचाने का प्रयत्न
करने लगे । उन्हें अजीर्ण (indigestion)
से
बहुत कष्ट होने लगा ।तब सोम देवता को साथ लेकर देवता और पितर ब्रह्माजी के पास गये
और बोले—‘ पितामह, निरन्तर श्राद्ध का अन्न
खाते-खाते हमें अजीर्ण हो गया है, इससे हमें बहुत कष्ट हो
रहा है, पितामह हमें इस कष्ट से मुक्ति का उपाय बताइए।’
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तब ब्रह्माजी ने अग्निदेव से कोई उपाय बताने को कहा । अग्निदेव ने
कहा—‘देवताओ और पितरो ! चूकि पचाने का कार्य मैं ही करता हूँ
अतः अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन करेंगे । मेरे साथ रहने से आप लोगों का
अजीर्ण दूर हो जाएगा।’
यह सुनकर सबकी चिन्ता दूर हो गयी; इसी कारण श्राद्ध में
पहले अग्नि का भाग उन्हैं दिया जाता है। श्राद्ध में अग्नि का भोग लगाने के बाद पितरों
के लिए जो पिण्डदान किया जाता है, उसे ब्रह्रमराक्षस दूषित
नहीं करते हैं । श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर ब्रह्मराक्षस वहां से भाग
जाते हैं ।
सबसे पहले पिता को, उनके बाद पितामह को और
उनके बाद प्रपितामह को पिण्ड देना चाहिए—यही श्राद्ध की विधि है ।
प्रत्येक पिण्ड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री-मन्त्र का जप करना चाहिये और ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’ का उच्चारण करना चाहिए ।
इस प्रकार मृतक व्यक्ति अपने वंशजों द्वारा पिण्डदान पाकर
प्रेत योनि के कष्ट से छुटकारा पा जाते हैं।और पितरों की भक्ति से मनुष्य को
पुष्टि, आयु, संतति, सौभाग्य, समृद्धि के अलावा कामनापूर्ति, वाक् सिद्धि, विद्या और सभी सुखों की
प्राप्ति होती है ।श्राद्ध करने से सुन्दर वस्त्र, भवन और सुख साधन श्राद्ध कर्ता को स्वयं ही सुलभ हो जाते
हैं।
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